यह कविता उन स्त्रियों के लिए जो पुरुषों को झूठे आरोपों में फ़ँसाती है। ऐसे पुरुषों के सच्चे होने पर भी उनके  हृदय मे जीवनभर दावाग्नि जलती रहती है। जब तक उन्हें न्याय मिलता है तब तक या तो उनकी उम्र निकल जाती है या साँसे :-  

मैं स्त्री हूँ, करती हूँ सबमें प्रवेश, निवेश हूँ और हूँ सबसे विशेष।
क्यूँ भूलूँ कि मैं ही आरम्भ, मैं ही अंत, मैं ही पूर्ण और मैं ही हूँ शेष।

प्रकृति ने दिए हैं मुझे कुछ खास अधिकार, क्यों मैं उनका हनन करूँ?
किसी के हनन से होने वाले परिणाम पर ज़रा तो हृदय से मनन करूँ।

बहुत आसान होता है लांछन लगाना, मुश्किल तो मिटाना है।
चलते- फिरते रिश्ते, तो हर कोई निभा लेता है, मुश्किल तो बिठाना है।

अगर मैं तुमको खराब कहूँ, तो मैं कौनसी दूध की धुली हूँ।
अगर मैं तुमको नमक-सा क्षार कहूँ, तो मैं कौनसी मिश्री में घुली हूँ।

उठा तो लूंगी उँगली तुम्हारी तरफ़ पर जो मेरी तरफ़ है चार उसका क्या?
करती गलतियाँ हूँ मैं भी कईं , माफ़ी मिलती हर बार उसका क्या?

कर तो दूंगी ज़माने में तिल का ताड़, पर तुम्हारे मौन को कैसे तोडूं ?
दर्द के घूंट पिए थे तुमने भी कईं बार, एहसानों के टुकड़े कैसे जोडूं ?

स्त्रीत्व का लिहाज करके , तुमने भी की थी कईं बार निगाहें नींची।
चबा गए थे ज्वलंत शब्दों को, मनुष्यता की लक्ष्मण रेखाएँ खींची।

मैं रंगों में भीगी और खुशबूओं में लिपटी हूँ,आसमां के इंद्रधनुष-सी।
धरती -सी सबको सींचती,स्त्री होकर भी हूँ थोड़ी पुरुष – सी।।

कहने से पहले ज़रा तो सोच लूँ, कि तुम्हारे ह्रदय पर क्या बीतेगी?
तुमसे जीत कर मेरी जीत, क्या वो सच में जीतेगी?

मेरे पिता और माता में से , मेरे पिता भी तो पुरुष हैं।
मेरा भाई तो मेरा प्यारा भैया है और मेरा पुत्र नहुष है।

बाकी सभी को मैंने क्यों व कब इत्यादि बना दिया।
मेरी सोच के दंभ की विजय में क्यों दूसरों के लिए व्याधि बना दिया।।

नहीं भूलनी चाहिए मुझे, स्वाभिमान और मर्यादा की परिभाषा।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः’, रहे यही संज्ञान यही भाषा।।

ललिता शर्मा ‘नयास्था ‘
भीलवाड़ा , राजस्थान

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